Ancient Agra
आगरा ताज नगरी के नाम से भी विख्यात है। वैसे आगरा के प्राचीन वैभव को मुगलों की देन समझा जाता था। क्यांेकि मुगल काल में आगरा आसपास के क्षेत्र व जनपदों के लिए एक व्यापारिक केन्द्र था। इसका प्रमाण यह भी है कि आगरा में विभिन्न बाजारों के नाम के आगे मण्डी लगा है जिससें यह प्रतीत होता है कि आगरा में विभिन्न वस्तुओं की मण्डी हुआ करती थी। आगरा से आसपास के जनपदों में जल की आपूर्ति यमुना नदी से होती थी। आगरा में बड़े बड़े (वर्तमान में) नाले है तक यह नहरें हुआ करती थी। इन नहरों से आसपस जिलों मेें मुगल काल में यमुना नदी से आसपास के जनपदों में पानी की आपूर्ति की व्यवस्था थी। परन्तु इस आधुनिक युग में जैसे जैसे षहर का विस्तर होता गया इनका स्वरुप गन्दे नालों में बदल गया।
आगरा का अतीत जानने के लिए इस्लामी (मुग़ल) काल से पूर्व के अतिहास की व्याख्या करने की कोषिष नहीं की गयी। यह कहना कि आगरा को दुर्ग वाले नगर की श्रेणी सुल्तान सिकन्दर लोदी ने दी, एक पूर्वाग्रह हो सकता है। (देखें ली. ए. कमर, द लेसर नोन मान्यूमेंट आॅफ आगरा (लेख) बसन्तात्सव सुवेनीर 1980 पृ0 20)।
फतेंहपुर सीकरी के निकट प्रागैतिहासिक कुछ षैलचित्र तथा पाषाण उपकरण प्राप्त हुए है। (डबलू. एच. सिद्दीकी, बसन्तोत्सव सुवेनीर (लेख) सन् 1980पृ0 4)। ईसा पूर्व छठी षति के चित्रित मृडाण्ड (पेटेण्ड ग्रे बेबर) वर्तमान षताब्दी के सातवें दषक में बटेष्वर तथा खलुआ में मिले। उस समय आगरा षूरसेन महाजनपद का अंग था। महाजनपद काल में बलख से हिन्दुकुष तक्षषिला होता हुआ महाजनपद मथुरा में दो भागों में विभक्त होता था। एक उज्जयनी होते हुआ पष्चिमी तट के बन्दगाहों तक जाता था, दूसरा पाटलीपुत्र को जो निष्चित आगरा होते हुए ही जाता था। दक्षिण-पथ का मार्ग ग्वालियर होते हुए जाता था जिसे मथुरा-आगरा मार्ग द्वारा उत्तर-पथ के जोड़ने की सम्भावना युक्तिसंगत लगती है। (मोतीचन्द्र, सार्थवाह पृ0 14, 15)। सप्त सिन्धु के पूर्व व दक्षिण की ओर बढ़ने के लिए आगरा एक महत्वपूर्ण प्रवेषद्वार था। अतः सामरिक, आर्थिक एवं भौगोलिक कारणों से प्राचीन काल में इस क्षेत्र का विकास एक समृद्धषाली नगर के रुप में अवष्य ही हुआ होगा।
तारीख दाऊदी में तत्कालीन मान्यता का उल्लेख है कि महाभारत में आगरा में कंस का दुर्ग था। एक फारसी कवि सालमन ने महमूद गजनी के भारत आक्रमण (1017 ई. तथा 1022 ई.) से पूर्व आगरा में एक विषाल एवं अति दृढ़ दुर्ग होने की बात को स्वीकारा है। उपरोक्त ग्रन्थ में ही यह उल्लेख भी है। कि गजनी ने दूसरे आक्रमण में आगरा नगर को इतनी बुरी तरह तहस-नहस किया था कि यह एक गाँव समान दिखने लगा था। इस उल्लेख से भी यह स्पष्ट होता है कि आगरा एक समृद्ध नगर था तथा यह सम्पूर्ण क्षेत्र एक समृद्ध संस्कृति, कला का पोषक रहा होगा।
लेखक प्रो0 भगवती प्रसाद कम्बोज, (पूर्व अध्यक्ष, ललित कला विभाग, आगरा काॅलेज, आगरा) ने भी अपनी लेख में उल्लेख किया है कि उनको 1979 में आगरा जनपद के ही इरादतनगर मार्ग (देवरी-इरादत्तनगर रोड) पर सड़बारा टीले पर सर्वेक्षण करने पर उनको कुछ मूर्तियाँ मिली जिससे उनको उनके कथन को बल मिलता है। यह टीला लगभग 250 मीटर लम्बा और 50 से 75 मीटर चैड़ा है ऊँचाई लगभग 6 से 8 मीटर होगी। सरकार द्वारा इस टीले को काटकर सड़क का निर्माण कराया जा रहा था। कटान के कारण भिन्न-भिन्न सतहों निकले पकाई मिट्टी के तरह-तरह के टुकडे मिले। इन टुकड़ों में सबसे महत्वपूर्ण टुकड़ा बहुत ही पतला और परिष्कृत एक चित्रित सलेटी मृण्माण्ड चिलमची के सेप का टुकड़ा था। लेखक ने इस टुकड़े के बारे में सम्भावना जताई कि यह सम्भवतः 5 सदी ई. पू. के आसपास का होगा। इनके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के मृमाण्डों के पतले-मोटे, लाल तथा काली पकाई मिट्टी के टुकड़े प्रचुर मात्रा में मिले।ये उत्तरकालीन (षुंग-कुषाण) है। यहाँ पर पकाई मिट्टी के बड़े आकार के हिन्दू कालीन ईंट भी मिली थी। इनका साइज 12 इंच की वर्गाकार तथा 2 इंच मोटी रही होगी। टुकड़े तथा ईटों के टुकड़े टीले पर सर्वत्र विखरे है स्पष्ट दिखते भी है।
डा0 श्रीभगवानषर्मा के अनुसार आगरा के तहसील का सामोगढ़ जो सम्भवतः समरगढ़ रहा होगा। इसी स्थान पर औंरगजंब एवं दाराषिकोह का निर्णायक युद्ध हुआ था। अपने गर्भ में इतिहास छुपाये बैठा है। इरादतनगर के समीप खारी नदी के तट स्थित लुहैटा नामक स्थान जोकि पूर्व में लोहागढ़ होना चाहिए और इसका सम्बन्ध महोबा नरेष आल्हा-ऊदल से रहा है।
यहीं पर एक साॅफ्ट स्टाॅन पर बनी छोटी विष्णु जी की भी मूर्ति मिली जो नवीं सदी ई. की है। यहाँ के लोग बताते है कि यहाँ पर उनको चाँदी व ताँबा के कई सिक्के मिलते रहते हैं। लेखक को जो सिक्के मिले वह सुल्तान काल से पुराने नहीं थें। कुछ मूर्तियाँ की षैली 8 से 13वीं षती ई. के बीच की होगी। प्रो0 कम्बोज को एक और टीलर जलेसर क्षेत्र के जंगलों में मिला, इस षोध करने वह अपने षोध छात्रों के साथ उस टीले पर गये। वहाँ पर बबूल के जंगल ये घिरा झरना नदी के खादरों में एक सुनसान खेड़ा है, जिस पर पकाई मिट्टी के सलेटी, काली, तथा लाल टुकड़े चारों ओर बिखरे पड़े थें । एक टेरीकोटा का काल भैरव की मूर्ति भी वहाँ मिली। वह लगभग 3 फुट लम्बी और 1.5 फुट ऊँची गुलाबी पत्र पर सुन्दर मूर्ति का षिल्प नमूना थी, इस मूर्ति पर सिंह और नारी की सुन्दर आकृति बनी थी। षेष आलेखन युक्त थी। सम्भवतः यह मन्दिर की भित्ति का अंष हेागा। पास के अन्य टीले पर पक्के चबूतरे पर सलेटी रंग के पत्थर पर बना चर्तुमुखी षिवंलिंग है। ये दोनो ही गुप्तकाल के बाद के मालूम पड़ते है।
डा. गंगासागर तिवारी अपने लेख आगराः इतिहास और संस्कृति का रोमांस में लिखते है कि विभिन्न आख्यानों में आगरा की स्थापना का श्रेय सूर्यवंषी अग्रसेन, कंस अथवा यमुना के भाई मुत्यु देवता (यमप्रस्थ) को दिया है। महाभारत के कर्णपर्व में षूरसेन के वासियों और वृष्णियां के साथ कूटनितिक आचार्य कृष्ण के सम्बन्ध का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि ययाति पुत्र यदु ने, जिस राजवंष की स्थापना की, उसने महाजनपद षूरसेन पर षासन किया। अग्रवन, आर्यगृह या अर्गलपुर का क्षेत्र ब्रजमण्डल के चैरासी वनों में अग्रणी कहलाने का हकदार माना जाता है। वर्तमान में आगरा के प्राचीन प्रतिनिधि के रुप में इसे समझा जाता है, परन्तु इतना निष्चित है कि 6 सदी के ई. पू. के महाजनपद युग में आगरा का इलाका षूरसेन के अन्तर्गत था। कालचक्र में राजवंषों के परिवर्तन के साथ इस क्षेत्र पर नन्द, मौर्य, कुषाण, आर्जुनायन, हर्षवद्धन, गहलौत तथा चैहान राजवंष के लोग यहाँ पर षासन करते थे। 1080 ई. में गजनी के तुर्क महमूद ने राजा जयपाल का हराया और आगरा के स्थान पर स्थित (चन्दवार) नगर को नुकसान पहुँचाया। इस स्थान पर 1193-94 ई. में जयचन्द्र और मुहम्मद गौरी के बीच एक युद्ध हुआ था।
यह एक निष्चित संकेत इस बात का है कि आगरा और उसके आसपास का क्षेत्र एक समृद्ध हिन्दुकालीन संस्कृति को अपने गर्भ में छुपाये है।
म्ध्य काल में 15वीं सदी तक वर्तमान आगरा के स्थान पर बादलगढ़ का किला था। राजस्थान, मालवा, ग्वालियर और पष्चिमी इलाकों के लिए इस स्थल की व्यापारिक और सामरिक महत्ता को ध्यान में रखते हुए अफगान सुल्तान सिकन्दर लोदी ने 1504 में आगरा नगर बसाया। विद्रोहों के दमन के लिए जो फौजी छावनी बनाई वही नगर के रुप में विकसित हुई।
पराग सिंहल, आगरा
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