59 वर्ष पुरानी सोच के साथ ढो रहे हैं हम अपनी अर्थव्यवस्था !!!
साथियों, इस लाॅकडाउन के दौरान घर में लाॅकअप में रहकर बहुत से विषयों पर आपसे चर्चा करने का अवसर मिल रहा है। क्योंकि मेरा मानना है, समय कैसा भी हो उसको हर क्षण को ‘अवसर’ में बदल कर जीवन को आनंद लेना चाहिए।
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था प्राप्ति और खर्च पर निर्भर करती है। जिस देश की प्राप्तियां यानि टैक्सेज कम हो और खर्च अधिक हो तो उस देश को ‘विकासशील देश’ की श्रेणी में रख दिया जाता है। आज हमारा देश विकासशील से विकसित देश की ओर बढ़ रहा है। अतः हम अपने देश की अर्थव्यवस्था का अध्ययन करेंगे तो पाते हैं कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था का आधार 59 साल पुराना है। निःसंदेह अर्थव्यवस्था पुरानी सोच पर आधारित है। जब हम 1961 में देश की आर्थिक स्थिति का आंकलन करेंगे तो उत्तर स्वयं ही मिल जाएगा। इसके लिए हमको 1961 से 2019 के बीच का समय का भी अध्ययन करना होगा। वर्ष 1961 प्रति व्यक्ति आय per capita income 330.21 आंकी गई थी जबकि 2018-19 के दौरान वास्तविक रुप से प्रति व्यक्ति आय (2011 -12 की कीमतों पर) रुपये का अनुमान है, रुपये की तुलना में 92,565 प्रतिशत की वृ(ि दर्ज की गई, जबकि 2017-18 के दौरान 87,623, आईएमएफ वल्र्ड इकोनाॅमिक आउटलुक ;अप्रैल-2019द्ध के अनुसार, मौजूदा कीमतों पर 2019 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 1,65,000 रुपये अनुमानित की गई। लेकिन हमारे देश प्राप्तियों का आधार आयकर कानून 1961 का लागू है और हम विश्व की पांचवी अर्थव्यवस्था बनाने की ओर कैसे आगे बढ़ रहे हंै!!
आयकर कानून का इतिहास
1857 की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश क्राउन ने ईस्ट इंडिया कम्पनी क माध्यम से भारत की सत्ता पर कब्जा करने के बाद भारत में शासन व्यवस्था को मजबूत करनो के लिए हाउस आॅफ कांमस (ब्रिटिश संसद) ने बहुत सारे कानूनों को बनाकर लागू किये, जिसमें मुख्यतः आयकर कानून, भारतीय प्रशासनिक सेवा कानून, भारतीय पुलिस सेवा कानून जैसे अन्य कानूनों को पारित कर भारत पर प्रभावी कर दिया। देश में पहला आयकर कानून 160 साल पहले 1860 में ब्रिटेन के अंग्रेज अधिकारी जेम्स विल्सन ने हाउस आॅफ कांमस ;ब्रिटिश संसदद्ध में भारत की अर्थव्यवस्था को संचालित करने के पहला बजट प्रस्तुत कर पारित कराया, पारित बजट में 200 रुपए तक की वार्षिक आय वालों व्यक्तिओं को आयकर से छूट प्रदान किये जाने का प्रावधान किया गया था। तत्पश्चात ब्रिटिश शासन ने 62 वर्ष के बाद देश-काल-परिस्थिति आंकलन करते हुए 1922 में पुनः नया आयकर कानून को लागू किया गया। 1947 में कांगे्रस ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के काल 1961 में भारतीय संसद में आयकर कानून और 1962 में आयकर नियमावली को पारित कर आयकर कानून में जोड़ दिया गया। 1860 में ब्रिटिश काल के प्रारम्भ होने के बाद अध्ययन रिपोर्ट देखें तो 1857-63 में प्रति व्यक्ति आय 163 रुपये मानी (Source Excerpted from Mukerjee, Asian Studies in Income and Wealth P. 103) एवं एक अन्य रिपोर्ट में कृषि एवं गैर-कृषि एवं जनसंख्या के अधार पर 1975 में 30.50 प्रति व्यक्ति आय (Source Atkindson, Journal of the Royal Society, Vol LXV part II P. 238) को आधार बनाया गया।
ऐसा आयकर अधिनियम, जिसकी रचना ब्रिटिश संसद में हुआ हो तो उसकी भावना के बारे में विचार करना होगा! इस क्योंकि जिस देश की संसद में यह कानून पारित हुआ और पारित करवाने वाला व्यक्ति भी विदेशी हो तो उसकी भावना दूसरे देश के प्रति न होकर बल्कि अपने देश के आर्थिक स्थिति और सोच के आधार होगी, और वह उसी भावना से वह कानून का रचना करेगा। 1860 में कब्जे के बाद ब्रिटिश शासन की भावना था कि ‘भारत के ऊपर कैसे राज किया जाए’, अतः भारत पर अधिवत्य जताने वाली नीतिओं का निर्धारण ब्रिटिश संसद मंे होता था। अतः मेरा मानना है कि हमारा देश में 1860 से 1922 और आजादी के वर्ष 1947 तक और 1947 से 1961 से आज तक प्रस्तुत और पारित बजट उसी भावना से प्रेरित होकर लागू किया जाता रहा। अतः किसी गुलाम देश के बजट में ऐसा कोई प्रावधान नहीं हो सकता जो जनसाधारण को प्रोत्साहन देने वाला नहीं हो बल्कि दंड देने वाला ही हो सकता।
आयकर कानून की आवश्यकता क्यों?
सबसे पहल आयकर कानून का तात्पर्य समझे कि क्यों ‘आय+कर’ क्यों जरुरी है। आयकर (इनकम टैक्स) वह प्रत्यक्ष कर है जिसकी व्यवस्था के अनुसार सरकार नागरिकों की आय पर कर (टैक्स) वसूलती है। आयकर कानून के अनुसार प्रत्येक व्यवसाय और व्यक्ति कर देने के लिए पात्रता रखता हैं, जिसके लिए वह पात्र व्यक्ति जो करदाता कहलाता है, को प्रत्येक वर्ष एक निर्धारित आयकर रिटर्न फाइल करना होता है। आय$कर देश को प्राप्त होने वाले राजस्व का एक महत्वपूर्ण आय का स्रोत है। जिसकी सहायता से सरकार अपने अधिकार क्षेत्र के अंदर रहने वाले लोगों और संस्थानों को जो सुरक्षा एवं प्रशासनिक व्यवस्थाएं और नागरिक सेवाएं उपलब्ध कराती है और इन सारी सेवाओं पर उसको बड़ी मात्रा में खर्च करना पड़ता है। इस खर्च को भारत सरकार टैक्स लगाकर पूरा करती है।
प्रत्यक्ष करों में सबसे बड़ा टैक्स आयकर की वसूली प्रत्येक वर्ष संसद द्वारा पारित बजट में निर्धारित नियम-निर्देशों के अनुसार देश के उन सभी नागरिकों और संस्थाओं से आयकर वसूल करती है, जिनकी आय टैक्स भरने योग्य होती है। इसमें व्यक्तिगत, संयुक्त परिवार, कंपनियां, फर्म, संगठन, संस्थाएं आदि शामिल किए जाते हैं। सभी से उसकी आय के अनुसार अलग-अलग रेट आॅफ टैक्स के आधार पर आयकर वसूला जाता है।
निर्धारित टैक्स स्लैबः अधिक आय पर दंड
अब बात करते हैं कि आजाद भारत में आयकर टैक्स स्लैब का 1974-75 में तत्कालीन वित्तमंत्री वाई. बी. चव्हाण ने अधिकतम आयकर सीमा दर 97.75 प्रतिशत से घटाकर 75 प्रतिशत कर दिया। यहां उसने क्या किया रु 6,000 तक की आय वालों के लिए कोई आयकर नहीं 70,000 रुपये से अधिक की आय स्लैब पर मूल आयकर की अधिकतम दर 70 प्रतिशत रखी गई। जिसमें आयकर के साथ अधिभार ;सेसद्ध को जोड़कर उच्चतम स्लैब कर योग्य आय का 77 प्रतिशत थी। 1976-77 में तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम सुब्रमण्यम ने आयकर स्लैब 15,18,25,30,40,50,55 एवं अधिकतम 60 प्रतिशत रखा, जिसमें अधिकतम आय 1 लाख या इससे अधिक पर निर्धारित किये। जबकि 1977-78 में तत्कालीन वित्तमंत्री एच.एम. पटेल ने यही स्लैब लागू रखे। 1985-1986 के बजट में तत्कालीन वित्तमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आयकर स्लैब में व्यक्तिगत आय पर आयकर की उच्चतम सीमांत दर 61.875 प्रतिशत से घटाकर 50 प्रतिशत कर दी जिसमें छूट की सीमा रु.18,000 रखी और 18,001 रुपये से 25,000 रुपये के स्लैब पर आयकर की दर 25 प्रतिशत, रुपये 25,001 रुपये से 50,000 रुपये के स्लैब पर, 30 प्रतिशत, जबकि 50,001 से रु. 1 लाख तक कर 40 प्रतिशत और 1 लाख रुपये से अधिक की आय पर यह 50 प्रतिशत रखा। 1992-1993 तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने स्लैब की संख्या तीन कर दिये। 30, 000 से 50,000 रुपये की आय के लिए दर 20 प्रतिशत, 50,000 रुपये से 30 लाख के बीच की आय के लिए एक मध्यम स्लैब रखी, और 1 लाख रुपये से अधिक आय वालों के लिए अधिकतम 40 प्रतिशत की दर रखी। दो साल के अंतराल के बाद सन् 1994-1995 में तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने ही टैक्स स्लैब को समायोजित किया परन्तु दरों में कोई परिवर्तित नहीं किया। और पहला स्लैब 35,000 रुपये, दूसरे पर 60,000 पर 20 प्रतिशत कर की समान दर के साथ, तीसरा स्लैब 30 प्रतिशत कर की दर के साथ 60000 रुपये से 1.20 लाख रुपये निर्धारित किया गया था, और 40 प्रतिशत की अधिकतम कर दर 1.2 लाख रुपये से अधिक आय के लिए निर्धारित किया। तत्कालीन वित्तमंत्री द्व वीपी सिंह और मनमोहन सिंह अपने बजट में स्लैब की संख्या में कटौती करने वाले थे, लेकिन 1997-1998 में तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम नेे ‘ड्रीम बजट’ प्रस्तुत करते हुए 15, 30 और 40 प्रतिशत की मौजूदा दरों को 10, 20 और 30 प्रतिशत के साथ बदल दिया। पहले स्लैब में 40,000 रुपये से 60,000 रुपये कमाने वालों ने 10 रुपये के टैक्स का भुगतान किया, 20 रुपये के स्लैब में। 60,000 से रुपये से ऊपर की सभी आय के लिए 1.5 लाख, और 30 प्रतिशत। लगभग 10 वर्षों के बाद 2005-06 में एक बार फिर तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने कर स्लैब में कुछ महत्वपूर्ण बदलावों की घोषणा करते हुए 1 लाख रुपये तक आय वालों को कोई कर नहीं देना होगा, 1 लाख से 1.5 लाख रुपये कमाने वालों पर 10 प्रतिशत कर, रु .1.5 लाख से रु 2.5 लाख पर 20 प्रतिशत और उन 2 लाख रुपये से अधिक की आय पर 30 प्रतिशत कर रखा। पांच साल के अंतराल के बाद 2010-11 तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने पुनः आय स्लैब में बदलाव करते हुए 1.6 लाख रुपये तक की आय वाले लोग शून्य कर, 1.6 लाख रुपये से 5 लाख रुपये तक की आय वाले वर्ग में 10 प्रतिशत, 5 लाख रुपये से 8 लाख रुपये वाले वर्ग के लोग 20 प्रतिशत और 8 लाख रुपये से अधिक पर 30 प्रतिशत रखा। 2012-13 में पुनः प्रणब दा ने न केवल व्यक्तिगत करदाताओं की सामान्य श्रेणी के लिए छूट की सीमा 1.8 लाख रुपये से बढ़ाकर 2 लाख, और कर स्लैब को भी थोड़ा मंे परिवर्तन करते हुए एक वर्ष में 2 लाख रुपये तक की शून्य, जो 2 लाख रुपये से 5 लाख रुपये तक पर 10 प्रतिशत, 5 लाख -10 लाख रुपये पर 20 का कर, वित्त विधेयक, 2015 के पारित होने के साथ, आकलन वर्ष ;।ल्द्ध 2016-17 से धन-कर को समाप्त कर दिया गया। तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने 1 करोड़ रुपये से अधिक की कर योग्य आय के साथ सुपर-रिच पर 2 प्रतिशत के अधिभार के साथ धन कर का स्थापित कर दिया। जेटली ने 2017-18 के बजट में व्यक्तिगत आकलन के लिए कराधान की मौजूदा दर को 2.5 से घटाकर 10 प्रतिशत की मौजूदा दर से 5 लाख से 5 प्रतिशत के बीच कर दिया।
आयकरदाताओं का वर्गीकरण
देश में तीन प्रकार के करदाता होते हैं, पहले वह जिनकी आय करयोग्य नहीं होती, अतः उन पर कर देने की कोई बाध्यता नहीं है, इसलिए मस्त है और सरकारी योजनाओं का लाभ ले रहे हैं और टैक्स देने की जिम्मेदारी से मुक्त हैं, दूसरा वर्ग है मध्यम श्रेणी का जो सेमी, माइक्रो या लघु उद्योग चलाकर स्वयं का और अपने कर्मचारियों के पालन कर रहे हैं तीसरा वर्ग वह है तो बड़े उद्योगपति है , जिनका व्यापारिक नेटवर्क राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है, जो देश का काॅरपोरेट कहलाता है।
दुखःद स्थिति कहें या सोच कहें कि आज भी संसद पटल पर बजट प्रस्तुत किया जाता है तो आम आदमी को इसी बात का इंतजार रहता है कि सरकार आयकर में कितनी छूट मिली? और बजट प्रस्तुत करने के बाद राजनीतिक दलों एवं आम जनता देश के अर्थजगत के विशेषज्ञ एवं अर्थशास्त्रियों की टिप्पणी का आधार भी यही होता है कि बजट विकासोन्मुख नहीं है, बजट में छूट की सीमा न बढ़ाकर गरीबों के साथ अन्याय किया गया है। यह भी महत्वपूर्ण है कि देश का बजट देश की उत्पादकता, जी.डी.पी. के साथ सभी क्षेत्र में समाज में अपेक्षित वृ(ि होगी या नहीं?
महत्वपूर्ण और विचारणीय प्रश्न है कि हमारे देश में आयकर कानून 1961 में संसद से पारित होकर देशभर में लागू हो गया, आज 59 साल बाद भी वही कानून लागू है बस प्रत्येक वर्ष बजट में बहुत से परिवर्तन और संशोधन किये जाते आ रहे हैं। अब आप स्वयं अंदाजा लगायें कि 1961 के बाद आज 2020 चल रहा है। 59 वर्ष पहले देश के नागरिकों की आर्थिक स्थिति क्या थी और आज क्या है? विशेषज्ञों का मानना है कि प्रत्येक 20 साल बाद देश, काल परिस्थिति में परिवर्तन आ जाता है अर्थात 3 पीढ़ियों का अंतर आ चुका है लेकिन आज भी वही पुराने आधार को मानते हुए आयकर व्यवस्था चल रही है, तो क्या आशा की जा सकती है कि हमारे देश के नागरिकों को सोच में परिवर्तन आने की संभावना बनेगी।
यदि भारत के बजट को 2025 तक 50 ट्रिलीयन डाॅलर का बनाकर विश्व का नेतृत्व करने के लिए भारत को खड़ा होना है अब समय आ चुका है कि देश में वर्तमान में चल रहा आयकर कानून मंे आमूलचूल परिवर्तन करना ही होगा और ऐसी व्यवस्था विकसित करते हुए लागू करनी होगी कि हमारे देश की जनता राहत के स्थान पर प्रोत्साहित करने वाला होगा, आज देश के साथ विश्वस्तरीय अर्थशास्त्री भी 1961 को आर्थिक आधार बनाकर नहीं बल्कि 2020 के आर्थिक आधार बनाकर देश की अर्थव्यवस्था पर विचार कर सुझाव दें।
मुझे ध्यान आ रहा है कि ईसा से 325 वर्ष पूर्व हमारे देश मंे महान अर्थशास्त्री आचार्य चाणक्य हुए, जिनके द्वारा विभिन्न विषयों के साथ राजनीति एवं अर्थशास्त्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे। जिनका अनुसरण भारत के अलावा बहुत से यूरोपीय देश अपने देश के बजट में बनाने में करते आ रहे हैं लेकिन भारत में कभी भी महान अर्थशास्त्री आचार्य चाणक्य के अर्थशास्त्र का एक भी सूत्र का करने की आवश्यकता नहीं समझी। आचार्य चाणक्य ने अपने संहिता में टैक्स के बारे में स्पष्ट उल्लेख किया है कि राजा को फूल (जनता) से उतना ही मधु (कर) लेना चाहिए, जिससे फूल मुरझा न जाए। आचार्य ने अपने सूत्र में बताया है कि राजा को जनता से उसकी आय का एक बटा छ (1/6)भाग कर के रुप में लेना चाहिए।
-पराग सिंहल
(लेखक कर जानकारी ;टैक्स पत्रिका के संपादक एवं एसोसिएशन आॅफ टैक्स पेयर्स एंड प्रोफेशनल्स के महासचिव )
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