बरन प्रदेश बनाम बुलन्दशहर

बरन प्रदेश, जिसका वर्मतान में प्रचलित नाम बुलन्दशहर है, जोकि काली नदी के किनारे और राष्ट्रमार्ग-65 पर बसा हुआ है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में ‘बरन प्रदेश’ पांचाल प्रदेश का ही हिस्सा था। लेकिन तथ्य यह भी है कि कौरव काल में यह क्षेत्र ब्रज प्रदेश में आता था और तत्कालीन शासक महाराजा अग्रसेन के ही राज्य का हिस्सा था लेकिन कौरव राज दुर्योधन ने यह हिस्सा काट कर अपने प्रिय मित्र ‘कर्ण’ को भेंट कर दिया था, जिसका नामकरण ‘वत्स प्रदेश’ रखा गया। जोकि पांचाल प्रदेश का हिस्सा बना । आज यह क्षेत्र ‘कर्णवास’ नाम से जाना जाता हैजोकि गंगा नदी के किनारे आज भी छोटे से गांव के रुप डिबाई तहसील में में बसा हुआ है।
बरन शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के इसी शब्द ‘वरण’ के हुई है। काली नदी के पश्चिमी तट पर स्थित टीले पर बसे होने के कारण यह नगर आज  बुलन्दशहर के नाम से जाना जाता है। पिछले 3000 वर्षों में जिन किलों तथा किलों के समूहों का निर्माण हुआ था उनके खंडहर अब काली नदी के पश्चिमी जट पर एक टीले के रुप में है।
बरन जनपद में ऐसे कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल हैं जिनका उल्लेख महाभारत ग्रंथ में मिलता है। इसके पूर्व में स्थित ‘आहार’ हस्तिनापुर की समाप्ति के बाद पांडवों का प्रमुख स्थल बन गया था। पौराणिक कथा के अनुसार इसी स्थान पर पांडवों के वंशज ‘जनमेजय’ ने अपने पिता परीक्षित को तक्षक नाग द्वारा डसे जाने का बदला लेने के लिए नागवंश को समूल नष्ट करने के लिए सर्पयज्ञ किया था। ‘रुक्मणी कंुड’ नाम क स्थल भी इसी जनपद में है। जहां श्री कृष्ण अपनी प्रियतमा को बलपूर्वक हरण कर लाए थे। किदवंती है कि बुलन्दशहर के वर्तमान राजकीय बस अड्डे के पीछे का स्थान जो सरोवर ताल के नाम से जाना जाता है।, वहीं पर युधिष्ठर का यक्ष संवाद हुआ था। इसी जनपद में दनकौर महाभारत कालीन गुरु द्रोणाचार्य के सामरिक युद्ध शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थल था। वारणावत, जो बरन की विशुद्ध प्राचीन भाषा है, का उल्लेख महाभारत ग्रंथ में उस विशेष रुप से किया गया है, जब पांडवों ने कोरवों के साथ संधि का प्रयत्न किया था और अपने निर्वाह हेतु वारणावत सहित अन्य वार गांव मांगे थे। 
बुलन्दशहर निवासी  एक वृद्ध श्री मूल चंन्द्र शर्मा, जो कि बुलन्दशहर के शिवचरण इंटर काॅलेज में प्राध्यापक थे, ने मुझे इस कंुड के बारे में बताया कि यह कुंड पांडवों के काल का है, पांडवांे में सबसे बड़े भाई युधिष्ठर के बारे में एक जिक्र मिलता है कि एक कुंड पर यक्ष ने युधिष्ठर से 5 प्रश्न किये थे। बुलन्दशहर का संबन्ध भगवान कृष्ण से भी है। बुलन्दशहर से लगभग 70 किलोमीटर पूर्व में अपूनशहर से पहले जहांगीराबाद से आगे एक गांव है जिसका नाम ‘आहार’ है। इस गांव में एक बहुत ही प्राचीन और प्रसिद्ध मां अवन्तिका का मंदिर है बताया जाता है कि भगवान कृष्ण ने इसी मंदिर से रुकमणी को उठाकर लाए थे। जबकि रुकमणी से शिशुपाल विवाह करना चाहता था। मां अवन्तिका जी का जिक्र भगवत गीता व अन्य पुराणों तथा धर्मिक पुसतकों में मिलता है।
बरनवाल समाज की प्रमुख पत्रिका ‘बरन संकल्प’ के संपादक श्री बालेश्वर प्रसाद बरनवाल अपने एक लेख में लिखते हैं कि ऐसी पुरातात्विक सामग्री मिलता है जिसका संबन्ध चैथी शताब्दी या इसके बाद के राजवंशों से जोड़ती है। समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में बरण का उल्लेख मिलता है। उस समय ‘मातिल’ बरन के राजा थे। राजा मातिल के नाम पर बरनवालों में मित्तल गोत्र प्रचलित है। बरन जनपद स्थित इंदौर नामक गांव के टीले में 405 ई0 के एक ताम्रपत्र पर एक दान का उल्लेख है। इस गांव के देवविष्णु नामक गौड़ ब्राह्मण ने सूर्य मंदिर में दीप प्रज्वलित करने हेतु यह दानपात्र दिया था। ‘आहार’ से प्राप्त एक शिलालेख में महाराज भोज प्रतिहार कालीन आठ दान पत्रों का उललेख मिलता है। ये दान पत्र श्री कंचन देवी मंदिर की सफाई, लिपाई, फूल, दीप सिंदूर, ध्वजा आदि कार्य से संबन्धित दर्शाये गये हैं। इसी शिलालेख की 14-16वी पंक्तिायों में सहाक नामक एक ‘राजक्षतृयान्वय वणिक’ का उल्लेख किया गया है। खेती या राज कार्य अहिंसा के मार्ग के पर चलकर सहजता से नहीं किया जा सकता था   ‘राजक्षतृयान्वय वणिक’संभवतः इसी अर्थ को स्पष्ट करता है। 
प्राचील काल का वैभवशाली नगर ‘बरन’ मध्यकाल में भी एक खूबसूरत नगर था। इसकी समृद्धि और एश्वर्य का उल्लेख फारसी के विद्वान अलउतवी ने अपनी पुस्तक ‘तारीखे यामिनी’ में किया है। 1017 ई0 में जब महमूद गजनवी ने हमारे देश पर आक्रमण किया उसकी निगाहें इस वैभवशाली नगर पर पड़ी। अलउतवी के अनुसार राजा हरदत्त, महमूद की बड़ी सेना से भयभीत होकर अपने दस हजार अनुचरों के साथ इस्लाम धर्म को अपना लिया। परन्तु यह उल्लेख बाद के इतिहास को दृष्टिगत कर सर्वथा अतिशयोक्तिपूर्ण और अविश्वनीय प्रतीत होता है। मानपुर से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य के अनुसार राजा हरदत्त के पश्चात उसकी सात पीढ़ी तक ने हिन्दू वंशजों ने बरन पर शासन किया। मानपुर से प्राप्त ताम्रपत्र में राजा हरदत्त के वंशानुक्रम राजाओं का स्पष्ट उल्लेख है। जोकि निम्न प्रकार से है। 1. चन्द्रक 2. धरनी वाराह 3. प्रभास, 4 भैरव, 5 रुद, ्र 6, गोविन्द राज, 7. हरदत्त, 8. भागादित्य 9. श्री कुलदित्य, 10. विक्रमादित्य, 11. भूपति उर्फ पद्मादित्य ;ब्राह्मण मंत्रीद्ध, 12 भोजदेव, 13. सहजदित्य, 14, अनंग। राजा विक्रमादित्य अथवा विक्रमसेन का जिक्र अलीगढ़ वंशावली में उल्लेख मिलता है। 
भारत के मध्य कालीन इतिहास में प्रारम्भिक चरण में 997 ई में ‘बरन’ का स्वतंत्र राज्य था। खिलजि़यों के समय में बरन एक महत्वपूर्ण नगर था। पारसीगं्रथ ‘अवेसता’ में बरन को सप्तधिन्धु की पूर्वी सीमा कहा गया है कालान्तर में मध्य कालीन संक्रमण में बरन की स्थिति ऊँचे ग्राम और ऊँचानगर के रुप में रह गयी। फिर भी शासकीय अभिलेखों में वह आज भी कस्बा बरन का ही उल्लेख मिलता है। मथुरा ईसा पूर्व पहली सदी की जैन प्रशस्तिओं में ‘वरन गण’ का उल्लेख मिलता है। ईसा से पूर्व राजा गोमित्र की मुद्रा पर ‘बरनायें’ शब्द अंकित है। पुराविद् कनिंघम ने इसका अर्थ ‘बरन’ से लगाया है। पुरातात्विक अध्ययन और खोजों से ज्ञात हुआ है कि बरन में बौद्ध विहार निर्मित किया गया था, इसकी प्रमाणिकता प्राप्त बुद्ध भगवान की प्रतिमा और ब्राह्मी लिपि के बौद्ध कालीन लेखों से सिद्ध होती है। इन अवशेषों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जब बौद्ध या जैन मत का उत्कर्ष पूरे भारत में था, बरन जनपद भी इससे प्रभावित था। 
प्राचीन काल का वैभवशाली और अति महत्वपूर्ण नगर बरन मध्य काल में एक खूबसूरत के साथ इसकी समृद्धि और एश्वर्य का उल्लेख फारसी के विद्वान अलउतवी ने अपनी पुस्तक ‘तारीखे यामिनी’ में किया है। 11वीं सदी में बरन एक प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य था। बरन के राजा हरदत्त ने बरन में एक तरफ काली नदी और तीन ओर से कंकड़ की बनी खाई का निर्माण करवाया जिसमें काली नदी का पानी भर जाता था, से घिरा एक सुरक्षित कोट अर्थात किले का निर्माण भी करवाया। जिसको आज भी बलाईकोट या ऊपरकोट कहा जाता है। राजा हरदत्त के नाम बसा यह नगर जिसको इतिहासकारों ने हापुर का नाम भी दिया गया।  सन् 1193 ई0 में राजा चन्द्रसेन के समय में बरन पर मौहम्म्द गौरी ने आक्रमण किया। राजा ने इस आक्रमण से दुर्ग की रक्षा के लिए कड़ा संघर्ष किया और मुस्लिम सेनापति ख्यावा लाल अली खां को मौत के घाट उतार दिया। लेकिन स्वजातीय अजय पाल तथा देशद्रोही ब्राह्मण हीरा सिंह की सत्तालोनुपता के कारण शत्रु दुर्ग में प्रवेश कर गये और राजा ने वीरगति प्राप्त की। दिल्ली शासक बनने के पूर्व बरन का सूबेदार अलीउद्दीन था सन् 1325 ई में मौहम्मद तुगलक दिल्ली का सुल्तान बन गया और उसने दोआब (बरन) में असहनीय भूमिकर लगाया। 
सल्तनत काल में बरन एक प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य न रहकर दिल्ली सल्तनत का एक सूबा (हिस्सा) बना। ‘तबाकत ए नासिरी’ के अनुसार इल्तुतमिश (1211-1235ई0) एवं बलवन शासन (1266-1286), मलिक तुजाकी बरन के सूबेदार रहे गुलमवंशी शासक कैकूवाद ने तुजाकी का वध करवाकर जलालुद्दीन को (1209-1296) बरन का सूबेदार बनाया।
मुगल काल में बादशाह अकबर के शासन काल (1556-1605) में बरन की जो आर्थिक स्थिति के बारे में स्पष्ट जानकारी ‘आइने अकबरी’ से मिलती है। आइने अकबरी के अनुसार उस समय बरन एक दस्ती अर्थात जिला सरकार देहली के भाग में था। उस समय महाल बरन की मालगुजारी 3907928 दाम थी। 16वीं सदी में बादशाह अकबर ने बरन परगने की कानूनगोई बरनवालों के लिए तजबीब की और लाला संतोषीलाल बरनवाल जाति के कानूनगो बनाए गये। लगभग ढाई सौ साल तक यह कानूनगो मानद उनके परिवार में ही चलती रही।  
इस प्रकार बरन का इतिहास कोई स्पष्ट नहीं है। लेकिन यह तथ्य को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि बरन अपने का अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। बरनवाल जाति बुलन्दशहर से निकली हुई जाति है। कहा जाता है कि लब मौहम्मद गौरी ने जब बरन पर हमला कि तब यहां के निवासी उस हमले के डर से और मारकाट के कारण बरन शहर छोड़कर दूसरे शहरों की ओर पलायन कर गये। अधिकतर यह लोग पूर्वी क्षेत्र (पूर्वी उत्तर प्रदेश) की ओर गये। आज भी पूर्वी उत्तर प्रदेश के मऊनाथभंजन, आजमगढ़, बहराइच, मिर्जापुर, इलाहाबाद, गाजीपुर, बलिया व बिहार प्रदेश के कुछ जनपद आदि शहरों में बड़ी संख्या में निवास कर रहे हैं। लेकिन बुलन्दशहर में मुसलमानों में बर्नी नाम से एक वर्ग भी मिलता है। यह बर्नी जाति अथवा वर्ग, वह वर्ग है जो कि मौहम्मद गौरी के आक्रमण के समय जो हिन्दू जबरदस्ती मुसलमान बन गये थे उनको बर्नी कहा जाता है। 
एक उल्लेख मिलता है कि The Barnwals are a caste claiming direct descent from the kings of Barn kingdom. The Baranwal community migrated to different parts of India, mostly to the Gangetic plains of India, and started living under the various family names of Verma, Lala, Goyal, Bakshi, pawaria (bilsuri), Choudhary, Patwari, Gupta, Parsariya, Simriya, Nagar, Arya, Shah, etc.
जिस समय आक्रांताओं के डर से बरनवालों ने वरण देश छोड़ा था उस समय का एक उल्लेख एक कविता के रुप में मिलता है। कविता में लिखा है कि ‘दरो दिवार पर हसरत से नजर करते हैं, खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं।’ इस कविता की प्राचीनता से मैं सहमत नहीं हूँ क्योंकि इस कविता में फारसी अथवा उर्दु के शब्दों का प्रयोग किया गया है। जो कि 11वी शताब्दी में प्रचलन में नहीं थी।
बुलन्दशहर में एक बहुत ही प्रसिद्ध मंदिर है जिसका नाम भूतेश्वर है। इस मंदीर से आगे चलकर बुलन्दशहर का श्मशान घाट भी है जोकि काली नदी के किनारे बसा है। भूतेश्वर मंदिर, जोकि भगवान शिव का मंदिर है,  के बारे में कहा जाता है कि यहां पर प्रतिष्ठित शिवलिंग पांडवों के काल का है। इस मंदिर के पीछे एक कुंड आज भी है, जो कि अपनी दुर्दशाा पर आंसू बहा रहा है। वैसे मैं स्वयं ही बुलन्दशहर का मूल निवासी हूँ वर्तमान में बचपन से आगरा में ही बास कर रहा हूँ। लेकिन मुझे अभी 11 जनवरी 2012 को इस मंदिर में शिव दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ जब मैं भगवान शिव के दर्शन कर रहा था। भूतेश्वर शिव के बारे में बताया जाता है कि इस क्षेत्र में भूतेश्वर महादेव की बड़ी महत्ता है। यहां पर श्रावण माह में कांवर चढ़ायी जाती है। श्रावण माह में शिवभक्तों का तांता लगा रहता है।
वर्तमान में बुलन्दशहरः
वर्तमान में बुलन्दशहर जनपद में अग्रवालों व मुसलमानों के साथ जाटों की जनसंख्या अत्याधिक है। शहरी क्षेत्र में अग्रवाल, मुसलमानों के अतिरिक्त सभी वर्ग के निवास रह रहे हैं जबकि ग्रामीण क्षेत्र में जाटों का बाहूल्य है। यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि बुलन्दशहर ने प्रदेश को दो मुख्यमंत्री क्रमशः बाबू बनारसी दास गुप्त व ;सिकन्दराबाद के निवासद्ध राम प्रकाश गुप्त दिये। इनके अतिरिक्त बुलन्दशहर के युवाओं ने देश सीमा पर अपनी जान न्यौछावर करके वीरता का परिचय देते हुए भारत के इतिहास के पन्नों पर अपने शहर बुलन्दशहर का नाम रोशन किया है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि इन युवा सैनिकों में बहुतों को विभिन्न सेना मैडल भी मिले हैं। बुलन्दशहर में खेतीबाड़ी भी अत्याधिक है यह क्षेत्र मुख्यतः गन्ना व गेहंू की पैदावार के लिए जाना जाता है। 
बरन (बुलन्दशहर) को समर्पित एक व्यक्तित्वः
वैसे तो बुलन्दशहर के आजादी से पूर्व या पश्चात के इतिहास को पन्नों में लिखन का प्रयास किया जाए तो शायद पन्ने ही कम पड़ जाएंगे क्योंकि आजादी से पूर्व भारत के स्वतंत्रता के आंदोलन में बुलन्दशहर के निवासियों ने बढ़चढ़ कर हिसा लिया। आपको बता दें कि इस नगर के नगर के किनारे बने मोहनी कूटीर में वैसे तो एक एक कुटिया ही थी लेकिन यह स्थल आजादी के दिवानों अर्थात स्वतंत्रता के लिए लड़ कर अपने जीवन हंसते-ीेंसते मिटा देने वालों के लिए एक शहरगाह थी। यहा के कर्मचारी उनकी पूरी तरह से सुरक्षा तथा उनके रहने की वयवस्था करते थे जबकि यहां से लगभग 2 किलोें दूर कोतवाली भी थी। इसी प्रकार चैक बाजार के श्रीराम मंदिर भी एक शरणगाह थी।
लेकिन मैं एक नाम ाक यहां पर उल्लेख करना चाहता हंू इस व्यक्तित्व ने आजादी के आंदोलन में अपनी पूरी-पूरी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए अपना योगदान दिया लेकिन कहीं पर भी अपने नाम का उल्लेख नहीं आने दिया। उनका नाम है मु0 हर प्रसाद सिंहल, जिनके द्वारा प्रदेश में व्यापारिक क्षेत्र में भी एक इतिहास कायम किया। व्यापार के क्षेत्र में मुंशी हर प्रसाद जी ने उत्तर प्रदेश में (संयुक्त प्रदेश) में दूसरा प्रिटिंग प्रेस की स्थापना की। जिसका वंर्तात आगे दिया जा रहा है। वैसे तो उनका नाम हर प्रसाद सिंहल था लेकिन जनसाधारण ने उनको मुंशी जी के खिताब से नवाजा था।
मु0 हर प्रसाद सिंहल (1865-1939), जिन्होंने अपनी 19 साल की अल्प आयु में प्रदेश का प्रेस ‘बरन प्रकाश प्रेस’ के नाम से 1884 में बुलन्दशहर में स्थापित किया। 1903 में पहला मासिक समाचार पत्र ‘दिल आराम’ के अतिरिक्त द्वमास समाचार पत्र ‘यद-बेजा’ व अन्य समाचार पत्र ‘खबरदर’ का प्रकाशन शुरु किया। आज उनके नाम से चढ़ाई का रास्ते का नाम ‘मुंशी हर प्रसाद मार्ग’ के नाम से जाना जाता है। (मुझे स्वयं अपने ऊपर गर्व है कि मैं मुलतः बुलन्दशहर का ही निवासी हूं और पूज्य मु. हर प्रसाद जी का चैथी पीढ़ी का ही वंशज हूं।)

बुलन्दशहर के प्राचीन इतिहास के बारे में निम्नपुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। जिनमें मुख्यतः तरीखे बुलन्दशहर, राजा लक्ष्मण सिंह, (1874), 2.  बुलन्दशहर, एफ एस ग्राउस (1884) 3. भारत की जनगणना, खंड-1 ग्प्प्प् (1911), 4 बरनवाल दर्शन, कृष्ण चन्द्र प्रसाद (1955), 5. मध्यकालीन भारत, प्रो0 सतीश चन्द्र (1978) व 6, बीनवाल जनपद डाॅ0 महेन्द्र प्रसाद (1991) है।

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