निजीकरण का विरोध!!
हमारे देश में सोशलन मीडिया बहुत ही सशक्त माध्यम बनता रहा है। यह भी देखा जा रहा है कि कथित विद्वान सरकार की नीतियों के विरोध में लम्बे-चैड़े विचार लिख देते हैं और सोशल मीडिया में बिना सोचे-समझे लोग उसको लगातार पोस्ट करते रहते हंै। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या विरोध के उचित है या अनुचित?
1947 के बाद हमारा देश आर्थिक विकास के क्षेत्र में बहुत पिछड़ चुका था। अभी हाल ही में अमेरिका के एक कार्यक्रम में हमारे विदेश मंत्री ने कहा कि 200 सालों के अंग्रेजों ने हमारे देश पर राज किया तो उस अंग्रेजी राज ने देश के विकास पर नहीं वरन लूटने में अधिक रुचि दिखायी। उनके द्वारा आंकड़ा दिया गया कि 200 सालों में अंगे्रजी शासकों ने 85 हजार करोड़ डाॅलर लूट कर ले गये। अमेरिका के एक लेखक ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि 1758 में विश्व की कुल जीडीपी में भारत का 32 प्रतिशत का योगदान था। अंग्रेजों ने भारत में भू-कर व्यवस्था को लागू और किसानों से 50 प्रतिशत भू-कर वसूल किया जाने लगा तो इसके कारण देश के किसानों ने देश में अफीम आदि खेती करनी शुरु कर दी।
1947 में जब भारत, ब्रिटिश राज से मुक्त हुआ था तब भारत के 1 रुपये के बराबर 13 डाॅलर हुआ करता था। आप कहानियों में पढ़ते थे कि हमारे देश के व्यापारी और श्रेष्ठी ;सेठद्ध विदेशों में व्यापार करने जाते थे। याद रहे कि पौराणिक ग्रन्थों और इतिहास में भी भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता रहा है। इस प्रकार से भारत समृ(ि देखकर विदेशी यात्री हमारे देश में आने लगे और 1758 में ईस्ट इंडिया कम्पनी का गठन कर भारत में व्यापार करने आएं और देश में शासन जमा लिया।
यह नहीं भूलना चाहिए कि कथित आजादी के बाद तत्कालीन सरकार ने पूंजीवाद समाजवाद अर्थव्यवस्था लागू करने का प्रयास किया। तदन्तर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने बैंक, विद्युत उत्पादन और सार्वजनिक उद्योगों का राष्ट्रीयकरण पर जोर दिया। और 1972 में देश के सभी बैंकों और देश में चल रही विद्युत उत्पादक और वितरण कम्पनियों के साथ सभी का का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
आप जानते ही है कि राष्ट्रीयकरण के बाद कार्यरत स्टाॅफ और सेवाओं की क्या हालत हो गई। सभी विभागों में कर्मचारी यूनियनों का गठन हो गया, उद्देश्य एक ही रहता है ‘अधिकारों की रक्षा’। लेकिन क्या दायित्वों के निर्बहन पर कोई बात नहीं होती।
यदि हम चर्चा करें सरकारी सार्वजनिक क्षेत्र के कम्पनियों की तो क्या यह कहना गलत न होगा कि सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां, जैसे भारतीय दूरसंचार निगम, एमटीएनएल, एयर इंडिया राल्को, आई.टी.आई. ;रायबरेलीद्ध, पराग दूग्ध उद्योग जैसे कितने सरकारी उद्योग वित्तीय स्थिति बहुत ही नाजुक दौर पर हैं, जहां कर्मचारियों के वेतन के लाले पड़ रहे हैं।
वैसे कहते हैं कि रेलवे की क्या हालत है। कोई टेªन समय पर नहीं दौड़ती, कोई व्यवस्था नहीं। यदि सुधार करने का प्रयास हो तो विरोध हो रहा है लेकिन यह क्यों सोचते कि रेलवे में भी अधिकारी और कर्मचारी सरकारी हैं और सरकारी अधिकारी और कर्मचारी कितनी जिम्मेदारी से काम करते हैं, उस पर आप लोग ही टिप्पणी करने से नहीं चूकते!!
अब सरकार ने रेलवे के निजीकरण की ओर ले जा रही है तो विरोध शुरु हो गया। जब यह समाचार मिला कि सरकार 150 रेल गाड़ियों को निजी हाथों में सौंपने जा रही हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यदि निजी कम्पनियों को सौंपना है तो निजी कम्पनियों इन्फ्रास्टैªक्चर खुद का खड़ा करें फिर उन पर रेलों को दौड़ाएं। लेकिन सोचना होगा कि यदि सरकार रेलवे की लाईन उपलब्ध करवा दें और और ट्रेन चलाने के लिए किराया वसूले जैसे हवाई कम्पनियों को सरकारी कम्पनी ‘भारतीय हवाईअड्डा प्राधिकरण’ इवाई अड्डा उपलब्ध कराती है और रनवे पर दौड़ने और हवाई अड्डा पर जहाज खड़ा होने किराया घंटों के हिसाब से वसूल करती है तो ऐसे ही रेलवे अथाॅरिटी ऐसे ही किराया वसूले तो क्या आपत्ति है?
हमको यह भी देखना होगा कि उत्तर प्रदेश की सार्वजनिक क्षेत्र के विद्युत उत्पादक कम्पनियां क्या पूरा उत्पादन के साथ अपेक्षित परिणाम दे रही हैं या थी। स्थिति यह हो गई कि सेवाएं तो क्या कम्पनियां अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए बजट सरकार से मांगती है।
आपका ध्यान यहां भी आकृष्ट करना चाहता हूं कि भारत में बीएसएनएल दूरसंचार क्षेत्र की एक मात्र कम्पनी हुआ करती थी, उस समय टैलिफोन हुआ करते थे लेकिन क्या हालत थी सालों के बाद नंबर आता था कि लेकिन जब नंबर आ जाता था कि यह कहा जाता था कि डी.पी. खाली नहीं है इसलिए कनेक्शन नहीं लग पाएगा। लेकिन 1995 के बाद दूरसंचार मंे क्रांति आयी और मोबाइल हाथ में आ गया। यहां तक की डाॅट-फोन अब प्राइवेट कम्पनियां भी उपलब्ध कराने लगी। जब भारत में रिलांयस कम्पनी ने कदम रखा तो सस्ती सुविधा आमजनता को उपलब्ध कराने लगी। और धीरे-धीरे डाॅट-फोन की मांग खत्म होने लगी। इसके पीछे एक कारण और भी कि डाॅट-फोन जब खराब हो जाता है तो बीएसएनएल ठीक करने में कितने दिन लगाएगी, इसका पता नहीं। हालत यह आ गई है कि बीएसएनएल जितने भी एक्सचेंज लगे है उनके पारस इतने टेलिफोन कनेक्शन आंवटित नहीं है कि जनरेट का खर्च निकाल लें वेतन व अन्य खर्च की बात तो छोड़ दें।
हमारे देश के जागरुक नागरिकों की एक बात पर बहुत आश्चर्य भी होता है और दुःख भी। यह आलोचना करने वाले एक बात नहीं भूलते कि देखों, विदेशों को, कितनी अच्छी व्यवस्था होती है विदेशों में, प्रत्येक काम कितने नियम से चलता है। सारी जगह सफाई मिलती है, नियमसे काम होता है। पूरे देश में टेªफिक कितना अच्छा है। लोगों में कानून का डर है। हमारे में ऐसा नहीं है और न ही हो सकता है।
इस बात को सुनकर हंसी आती है कि दूसरे देश की तारीफ कर अपने देश को कोसना, हमारे बु(जिवीयों का फैशन बन गया है। कोई कहता है ‘तानाशाही चल रही है’ तो कोई है ‘इनटोलरेंस का माहौल’ बनता रहा है। यह भी आशा करते हैं कि देश में सुधार तो हो लेकिन सख्ती हम पर नहीं दूसरों पर होनी चाहिए। हम जैसा करें हमको करने दो। हमको स्वीकार करना चाहिए जब देश बदल रहा है तो विकास पर शक नहीं करना चाहिए। बदलाव जब आता है कि लोग स्वीकार करें और सहयोग करें तर्क-कुतर्क तो होता ही है, लेकिन विरोध से पहले विचार अवश्य ही करना चाहिए।
1947 के बाद हमारा देश आर्थिक विकास के क्षेत्र में बहुत पिछड़ चुका था। अभी हाल ही में अमेरिका के एक कार्यक्रम में हमारे विदेश मंत्री ने कहा कि 200 सालों के अंग्रेजों ने हमारे देश पर राज किया तो उस अंग्रेजी राज ने देश के विकास पर नहीं वरन लूटने में अधिक रुचि दिखायी। उनके द्वारा आंकड़ा दिया गया कि 200 सालों में अंगे्रजी शासकों ने 85 हजार करोड़ डाॅलर लूट कर ले गये। अमेरिका के एक लेखक ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि 1758 में विश्व की कुल जीडीपी में भारत का 32 प्रतिशत का योगदान था। अंग्रेजों ने भारत में भू-कर व्यवस्था को लागू और किसानों से 50 प्रतिशत भू-कर वसूल किया जाने लगा तो इसके कारण देश के किसानों ने देश में अफीम आदि खेती करनी शुरु कर दी।
1947 में जब भारत, ब्रिटिश राज से मुक्त हुआ था तब भारत के 1 रुपये के बराबर 13 डाॅलर हुआ करता था। आप कहानियों में पढ़ते थे कि हमारे देश के व्यापारी और श्रेष्ठी ;सेठद्ध विदेशों में व्यापार करने जाते थे। याद रहे कि पौराणिक ग्रन्थों और इतिहास में भी भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता रहा है। इस प्रकार से भारत समृ(ि देखकर विदेशी यात्री हमारे देश में आने लगे और 1758 में ईस्ट इंडिया कम्पनी का गठन कर भारत में व्यापार करने आएं और देश में शासन जमा लिया।
यह नहीं भूलना चाहिए कि कथित आजादी के बाद तत्कालीन सरकार ने पूंजीवाद समाजवाद अर्थव्यवस्था लागू करने का प्रयास किया। तदन्तर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने बैंक, विद्युत उत्पादन और सार्वजनिक उद्योगों का राष्ट्रीयकरण पर जोर दिया। और 1972 में देश के सभी बैंकों और देश में चल रही विद्युत उत्पादक और वितरण कम्पनियों के साथ सभी का का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
आप जानते ही है कि राष्ट्रीयकरण के बाद कार्यरत स्टाॅफ और सेवाओं की क्या हालत हो गई। सभी विभागों में कर्मचारी यूनियनों का गठन हो गया, उद्देश्य एक ही रहता है ‘अधिकारों की रक्षा’। लेकिन क्या दायित्वों के निर्बहन पर कोई बात नहीं होती।
यदि हम चर्चा करें सरकारी सार्वजनिक क्षेत्र के कम्पनियों की तो क्या यह कहना गलत न होगा कि सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां, जैसे भारतीय दूरसंचार निगम, एमटीएनएल, एयर इंडिया राल्को, आई.टी.आई. ;रायबरेलीद्ध, पराग दूग्ध उद्योग जैसे कितने सरकारी उद्योग वित्तीय स्थिति बहुत ही नाजुक दौर पर हैं, जहां कर्मचारियों के वेतन के लाले पड़ रहे हैं।
वैसे कहते हैं कि रेलवे की क्या हालत है। कोई टेªन समय पर नहीं दौड़ती, कोई व्यवस्था नहीं। यदि सुधार करने का प्रयास हो तो विरोध हो रहा है लेकिन यह क्यों सोचते कि रेलवे में भी अधिकारी और कर्मचारी सरकारी हैं और सरकारी अधिकारी और कर्मचारी कितनी जिम्मेदारी से काम करते हैं, उस पर आप लोग ही टिप्पणी करने से नहीं चूकते!!
अब सरकार ने रेलवे के निजीकरण की ओर ले जा रही है तो विरोध शुरु हो गया। जब यह समाचार मिला कि सरकार 150 रेल गाड़ियों को निजी हाथों में सौंपने जा रही हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यदि निजी कम्पनियों को सौंपना है तो निजी कम्पनियों इन्फ्रास्टैªक्चर खुद का खड़ा करें फिर उन पर रेलों को दौड़ाएं। लेकिन सोचना होगा कि यदि सरकार रेलवे की लाईन उपलब्ध करवा दें और और ट्रेन चलाने के लिए किराया वसूले जैसे हवाई कम्पनियों को सरकारी कम्पनी ‘भारतीय हवाईअड्डा प्राधिकरण’ इवाई अड्डा उपलब्ध कराती है और रनवे पर दौड़ने और हवाई अड्डा पर जहाज खड़ा होने किराया घंटों के हिसाब से वसूल करती है तो ऐसे ही रेलवे अथाॅरिटी ऐसे ही किराया वसूले तो क्या आपत्ति है?
हमको यह भी देखना होगा कि उत्तर प्रदेश की सार्वजनिक क्षेत्र के विद्युत उत्पादक कम्पनियां क्या पूरा उत्पादन के साथ अपेक्षित परिणाम दे रही हैं या थी। स्थिति यह हो गई कि सेवाएं तो क्या कम्पनियां अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए बजट सरकार से मांगती है।
आपका ध्यान यहां भी आकृष्ट करना चाहता हूं कि भारत में बीएसएनएल दूरसंचार क्षेत्र की एक मात्र कम्पनी हुआ करती थी, उस समय टैलिफोन हुआ करते थे लेकिन क्या हालत थी सालों के बाद नंबर आता था कि लेकिन जब नंबर आ जाता था कि यह कहा जाता था कि डी.पी. खाली नहीं है इसलिए कनेक्शन नहीं लग पाएगा। लेकिन 1995 के बाद दूरसंचार मंे क्रांति आयी और मोबाइल हाथ में आ गया। यहां तक की डाॅट-फोन अब प्राइवेट कम्पनियां भी उपलब्ध कराने लगी। जब भारत में रिलांयस कम्पनी ने कदम रखा तो सस्ती सुविधा आमजनता को उपलब्ध कराने लगी। और धीरे-धीरे डाॅट-फोन की मांग खत्म होने लगी। इसके पीछे एक कारण और भी कि डाॅट-फोन जब खराब हो जाता है तो बीएसएनएल ठीक करने में कितने दिन लगाएगी, इसका पता नहीं। हालत यह आ गई है कि बीएसएनएल जितने भी एक्सचेंज लगे है उनके पारस इतने टेलिफोन कनेक्शन आंवटित नहीं है कि जनरेट का खर्च निकाल लें वेतन व अन्य खर्च की बात तो छोड़ दें।
हमारे देश के जागरुक नागरिकों की एक बात पर बहुत आश्चर्य भी होता है और दुःख भी। यह आलोचना करने वाले एक बात नहीं भूलते कि देखों, विदेशों को, कितनी अच्छी व्यवस्था होती है विदेशों में, प्रत्येक काम कितने नियम से चलता है। सारी जगह सफाई मिलती है, नियमसे काम होता है। पूरे देश में टेªफिक कितना अच्छा है। लोगों में कानून का डर है। हमारे में ऐसा नहीं है और न ही हो सकता है।
इस बात को सुनकर हंसी आती है कि दूसरे देश की तारीफ कर अपने देश को कोसना, हमारे बु(जिवीयों का फैशन बन गया है। कोई कहता है ‘तानाशाही चल रही है’ तो कोई है ‘इनटोलरेंस का माहौल’ बनता रहा है। यह भी आशा करते हैं कि देश में सुधार तो हो लेकिन सख्ती हम पर नहीं दूसरों पर होनी चाहिए। हम जैसा करें हमको करने दो। हमको स्वीकार करना चाहिए जब देश बदल रहा है तो विकास पर शक नहीं करना चाहिए। बदलाव जब आता है कि लोग स्वीकार करें और सहयोग करें तर्क-कुतर्क तो होता ही है, लेकिन विरोध से पहले विचार अवश्य ही करना चाहिए।
Comments
Post a Comment