बदलना होगा पूंजीवादी समाजवाद अर्थव्यवस्था को

महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘भारत गांव में बसता है’। उनके कहने का अर्थ कुछ भी लगा लो, लेकिन उनकी भावना यह रही होगी कि ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है’, क्योंकि आजादी के समय (1947 में) देश में बड़ा भू-भाग पर खेती होती थी, लोगों की आजिविका कृषि आधारित ही थी, अनुपात में शहरीकरण बहुत कम था और देश में उद्योगों की संख्या भी नगण्य ही थी।
महात्मा गांधी के उस कथन का अध्ययन किया जाए कि हमारे देश में कृषि का भविष्य क्या रहा? और परिणाम सामने क्या आए? क्या हमारा देश ‘कृषि प्रधान’ होकर भी हमारे देश की मांग को पूरा करने में सक्षम हो पाया? इसी प्रश्न को लेकर हमको सरकार की नीतिआंे के साथ योजनाओं का भी अध्ययन करना बहुत आवश्यक हो गया है।
यहां पर हम दो बिन्दु पर विचार करना चाहेंगे कि क्या हमारे देश अर्थव्यवस्था ‘कृषि प्रधान’ बनी रही अथवा पूंजीवाद समाजवाद’!! साथ ही इस बिन्दु पर विचार करना होगा कि क्या हमारा कृषि प्रधान देश वास्तव में कृषि प्रधान देश रह पाया या फिर.... राजनीति से प्रभावित होकर रास्ता भटक गई।
पहला तो यह है कि आजादी के बाद हमारे देश की अर्थव्यवस्था समाजवाद की ओर ले जाने का प्रयास किया गया लेकिन समाजवाद की ओर पूरी तरह से नहीं जा और हमारे देश की अर्थव्यवस्था ‘पूंजीवादी समाजवाद नीति’ को जन्म देने में आगे बढ़ गई।
पूंजीवादी समाजवादः हमारे देश की अर्थव्यवस्था पूंजीवादी समाजवाद की ओर क्यों? जब यह प्रश्न उठता है तो जवाब भी देना है। जब देश ब्रिटिश राज से मुक्त होकर कांगे्रस के हाथ में आया तो कांग्रेस ने देश की अर्थव्यवस्था को ‘समाजवाद’ पर आधारित करने की योजना बनायी। तो आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाले उद्योगपतिओं ने इस व्यवस्था का विरोध करते हुए अपने भविष्य की चिंता व्यक्त की। अतः तत्कालीन शासन ने उनके योगदान को महत्व देते हुए उनकी भावना के अनुरुप देश की अर्थव्यवस्था को समाजवाद के साथ पूंजीवाद को भी मोड़ दिया, जिसके चलते हमारी अर्थव्यवस्था का रुप ‘पूंजीवादी समाजवाद’ की ओर मुड़ गया। इसके साथ ही देश की अर्थव्यवस्था समाजवाद के नारे के साथ वोट बैंक की राजनीति में आगे बढ़ती गई। परिणाम सामने यह आया कि अर्थव्यवस्था प्रभावित तो हुई ही, कृषि प्रधान देश का सपना भी सपना हो गया!!
फिर आंधी आई ‘हरित क्रांति’ की। जिसमें नारा लगाया गया कि देश की उपज बढ़ाओ। उपज बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार के कैमिकल युक्त खाद के साथ पेस्टीसाईडस् का प्रयोग बढ़ता चला गया। परिणाम सामने आने लगे कि गन्ना 24 फिट लम्बा उगने लगा, गेंहू की बाल में 6-8 दानों के स्थान पर 24 दाने तक पैदावाद हो गई। और इस फसल को खाने वालों में विभिन्न प्रकार की बीमारियांे ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगी और आज स्थिति यह है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रोग से ग्रस्त होता चला आ रहा है। साथ ही सार्थक परिणाम सामने आने के साथ एक नकारात्मक परिणाम आने यह भी आया कि दाल आदि का उत्पादन में भारी गिरावट भी दर्ज की गई और 2014 तक परिणाम था कि देश में कुल मांग का 4 से 5 प्रतिशत दालों का उत्पादन देश में रह गया और बाकी मांग की पूर्ति विदेश से होने लगी। नतीजा सामने यह भी आया कि कैमिकल युक्त खाद और पेस्टीसाईडस् के भारी उपयोग से कृषि योग्य भूमि की उर्वरकता में भारी कमी आने लगी और भूमि की मिट्टी उत्पादकता प्रभावित होती गई। उधर राजनीति ने किसानों की ओर करवट ले ली और विभिन्न राजनीति दल किसानों की चिंता के नाम अपनी राजनीति चमकाने में लग गये। उधर ग्रामीण क्षेत्र में एक बदलाव आया कि गांव के युवा पढ़-लिखकर शहर की ओर भागने लगा, और अपनी खेतीयोग्य भूमि पर स्वयं कृषि कार्य करने के बजाय ठेके पर कृषि कार्य करवाने का प्रचलन बढ़ता चला गया। आज इस सत्य को स्वीकार करना होगा कि आज ग्रामीण क्षेत्र में अधिकतर कृषि कार्य ठेके पर हो रहे हैं। यही कारण है कि ठेके पर कार्य करने वाले किसान, किसान न होकर उद्योगपति का रुप लेने लग गए। वही फसल अधिक उगाने में रुचि ले रहे हैं जिसमें लागत कम और अधिक लाभ के साथ उत्पादन हो। सरकार ने आजादी के बाद किसानी के तरीके में कोई नया तकनीकी और नई सोच नहीं दी बल्कि परम्परागत किसानी को ही प्रोत्साहन दिया। साथ ही किसानों को विभिन्न सब्सिडी देने से किसान सरकार पर निर्भर होने लगा। यह सब जानते हैं कि जब कोई व्यक्ति सरकारी अंशदान पर निर्भर हो जाता है तो वहीं विकास रुक जाता है।
उधर देश में उद्योगों की स्थिति का अध्ययन किया जाए तो एक परिणाम यह सामने आया कि राजनीति किसानों की ओर बढ़ने के साथ उद्योगों का निशाना बनाया जाने लगा। निशाने पर इस कदर आ गए कि सरकार राजस्व के नाम पर उद्योगों और उद्योगपतिओं का उत्पीड़न होने लगा सब्सीडी के नाम से किसानों को बांटा जाने लगा। लेकिन इस दौरान इस ध्यान किसी का नहीं गया कि किसान वास्तव में किसान रह गया या  उद्योगपति! क्योंकि ठेके पर कृषि ने किसान को कास्तकार के बजाय ‘कृषि उद्योग’ चलाने के लिए प्रेरित कर दिया और सरकारी अंशदान की ओर देखने लगा।
लेकिन आज आवश्यकता वास्तविक बदलाव की। देश की केन्द्र सरकार और राज्य सरकार यदि सरकारें वास्तव में देश के किसानों की हालात के प्रति चिंताग्रस्त है तो कृषि कार्य को उद्योगांे की ओर बढ़ाने के साथ कृषि लागत कम करने हुए परम्परागत कृषि को मजबूत बनाने की योजना बनाएं, साथ ही कृषि उत्पादन में केमिकलयुक्त खाद के साथ पर परम्परागत जैविक खाद के प्रयोग को प्रोत्साहित करें ताकि किसान नई तकनीकी से कृषि का ओर नया स्वरुप प्रदान करने के साथ समाज विभिन्न नई-नई बीमारियों से बच सकेगा।
हम ध्यान दिलाना चाहते हैं कि देश के उद्योगपति और व्यापारीवर्ग जो देश के विकास के साथ दिया जाने वाली सब्सिडी को बांटने के लिए टैक्स के रुप में राजस्व प्रदान करते हैं, उस राजस्व को सरकारी कोष मंे जमा करने के लिए प्रेरित करने का काम करते हंै ‘अधिवक्ता’ की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। अर्थव्यवस्था में सुविधाओं के स्थान पर नई अर्थव्यवस्था को लागू करने ढांचागत विकास के लिए काम होना चाहिए।

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