पंजीवादी समाजवाद के दवाब से प्रभावित हुई हमारी अर्थव्यवस्था

हमारे देश की अर्थव्यवस्था आजादी के 67 साल बाद एक ऐसे मोड़ पर आ पहंुची है जिसको संभालने में हमारी केन्द्र सरकार बिल्कुल ही असफल सी दिखायी दे रही है। जबकि सरकार के मुखिया और केन्द्रीय वित्त मंत्री दोनों ही अर्थशास्त्री है।  
जब हमारा देश आजाद हुआ तब यह समस्या सामने आई कि सरकार को किस प्रकार ‘अर्थव्यवस्था’ का निर्माण करना चाहिए क्योंकि हमारे राष्ट््रपिता महात्मा गांधी का मत था कि भारत 80ः भाग में बसता है और कुटीर उद्योगों का अत्याधिक महत्व है। अतः देश की अर्थव्यवस्था ‘समाजवाद’ के नीति के आधार पर विकसित होनी चाहिए। परन्तु उस समय के उद्योगपतियों का आजादी के आंदोलन में दिया योगदान का प्रभाव दिखायी दे रहा रहा था जोकि भारत की अर्थनीति को प्रभावित करने में सक्षम था। इसके पीछे तर्क-वितर्क और प्रभाव के भंवर जाल में अर्थव्यवस्था का निर्माण प्रारम्भ हुआ जोकि  ‘पंूजीवादी समाजवाद’ के दवाब से प्रभावित होती चली गई।
इसी आधी-अधूरी और अधकचरी हुई नीति का अनुसरण करते हुए देश की ‘अर्थनीति’ को विकसित किया गया। परन्तु इस अर्थनीति में देश की आय का मुख्य आधार ’करप्रणाली’ भी प्रभावित होकर हो गई। परन्तु जो कर प्रणाली का निर्माण हुआ उसका झुकाव ‘करदाताओं’ पर दबाव बनाना ही था। कालांतर में यह ‘कर प्रणाली’ हमारे देश की आंतरिक राजनीति ;तुष्टीकरणद्धसे अत्याधिक प्रभावित होती चली गई। परिणाम यह आता गया कि देश की आय का स्रोत मात्र    1 से 2ः ही रह गया परन्तु उस आय को खर्च का हिस्सा 98-99ः हो गया और इस दबाव की सच्चाई को किसी भी दल की सरकार इस सच को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी और है। मेरा आशय ‘आयकर नीति’ से आज भी हमारे देश में कुल करदाता मात्र 2.5 से 3.5ः है जबकि खर्च हिस्सा 97.5 से 96.5ः है। ऐसी ही प्रणाली केचलते देश के उत्पादन पर ‘कर’ ;जंगद्धका अत्याधिक प्रभाव पड़ता गया जोकि विश्व स्तर पर प्रतियोगिता पूर्ण बाजार में टिकने में असफलता दिलाता रहा है और देश में कालेधन का बाजार गुलजार होता गया जिससे भ्रष्टाचार को समुचित बढ़ावा मिला। देश के कालेधन में भ्रष्टाचार ने महती भूमिका निभायी। इस सत्य को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि आज देश के बाजार में ‘समांतर अर्थव्यवस्था’ मजूबती के साथ कायम हो गई जिसको तोड़ने में भी सरकार बिल्कुल ही नाकाम ही रही है। 2008 के वैश्विक मंदी का भारत पर समुचित प्रभाव न पड़ने के पीछे ;दबी जुवान मेंद्ध तर्क भी यही दिया गया लेकिन आज इसका दुष्परिणाम भी सामने आता जा रहा है कि हमारे देश की विकास दर का आंकड़ा 5-6ः पर अटक गया और रुपया गोता-दर-गोता खाकर वैश्विक स्तर पर अपनी साख को तलाशते रहने का प्रयत्नशील है और हमारी सरकार है कि ‘आंकड़ेबाजी’ में अटक कर स्वयं का पाकसाफ करने की जुगत लगी रहती है। उधर सरकार ने विभिन्न जनकल्याण योजनाओं के माध्यम से अनुदान के नाम पर लोन बांटा गया उसके कारण आज देश की बैंकों का ‘एनपीए’ अत्याधिक होता चला जा रहा है। तभी तो रुपये के गिरते मूल्य को रोकने के उपाय में बैंके ‘एनपीए’ वसूलने के लिए प्रयत्नशील हैं। सरकार यदि वास्तव में देश की गिरती रुपये का मूल्य और डगमताती अर्थव्यवस्था के लिए चिंतित है तो ईमानदारी से देश की नई ‘अर्थनीति’ पर पुनः गंभीरता पूर्वक विचार करते हुए बिना किसी राजनीतिक डर के पूंजीवादी समाजवाद अथवा एक ‘आधुनिक अर्थनीति’ का निर्माण करना होगा ताकि भारत का निकट भविष्य में विश्व स्तर पर नेतृत्व करने का सपना साकार हो सके लेकिन उस नीति में आंकड़ेबाजी की बाजीगरी का मायाजाल न हो।
                

Comments

Popular posts from this blog

जगनेर का ऐतिहासिक किला-

बरन प्रदेश बनाम बुलन्दशहर

बुलन्दशहर बनाम बरन: प्राचीन परिचय