प्राकृतिक उत्पाद का सदुपयोग हो

देश में 14वीं लोकसभा के महायज्ञ पूरा हो चुका है और नई सरकार सत्तारुढ़ हुई। पिछले कुछ समय से चुनावों के परिणामों मंे यह देखा जा रहा है कि देश का मतदाता, वह मतदान तक पूरी तरह से शांत होकर मतदान करने की परंपरा बना ली है। इस तथ्य का प्रमाण आप 2004 के लोकसभा एंव 2007 के विधानसभा के चुनाव के दौरान अनुभव कर चुके होंगे। 2004 में कांग्रेस एवं 2007 में विधानसभा के परिणाम आए तब उस समय की विजयी रहने वाली बहुजन समाज पार्टी की मुखिया भी इन परिणामों पर आश्चर्य चकित रह गई थी। 
चुनावों के दौरान विभिन्न क्षेत्रों में यह भी देखने में आ रहा था कि सभी वर्ग के मतदाता प्रत्याक्षियों के कार्यकलापों का आंकलन अपने अनुसार करने लगे हैं, कुछ क्षेत्रों में एक कमी देखने का अवश्य ही मिली वहां की जनता आज भी जाति के नाम ही मतदान करने को आतुर रहे थे। खैर, चुनाव पूरे हुए, नई सरकार का गठन होना है तो हम बात करते हैं नई सरकार के सामने आने वाली चुनौतियों की। हमारी राय के अनुसार सरकार के सामने चुनौती है देश की मजबूत अर्थव्यवस्था की, सकल घरेलू उत्पाद दर एवं औद्योगकि विकास दर बढ़ाने की और व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने की।
अर्थव्यवस्थाः 
आजादी के 66 वर्ष बाद भी हमें यह सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती कैसे दी जाए। यह प्रश्न तब सामने खड़ा हो रहा है जबकि विश्व बैंक की यह रिपोर्ट कार्ड दिया कि भारत की अर्थव्यवस्था, विश्व की तीसरी बड़ी व्यवस्था है, परन्तु केवल विश्व बैंक के संतुष्ट होने से ही हम समर्थ नहीं हो सकते बल्कि हमें स्वयं को भी संतुष्ट होना पड़ेगा।
मजबूत अर्थव्यवस्था बनाम सब्सिडीः 
देश की मजबूत अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए नई सरकार को पुनः ‘अर्थनीति’ पर विचार करना पड़ेगा क्योंकि आजादी के बाद ‘समाजवाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था’ की नीति में काफी परिवर्तन हुए जिनका मानक और सोच ‘राजनीतिक’ ही रहा, उसमें भी ‘कर प्रणाली और सब्सिडी’ का बहुत बड़ा हिस्सा है जिसने हमारे देश की अर्थव्यवस्था को कहीं हद तक प्रभावित किया। एक आंकड़े के अनुसार केन्द्र सरकार द्वारा वर्ष 2013-14 ढाई लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दी गई। सरकार, किसी की भी हो परन्तु इतनी बड़ी राशि को समायोजित करना टेड़ी खीर ही है। स्थिति यह भी आ गई है कि यदि अब कोई भी सब्सिडी वापस ली जाती है तो उसका ‘राजनीतिक’ दूरगामी प्रभाव पड़ेगा परन्तु नई सरकार को कड़वे और कटु निर्णय तो लेने ही पड़ेंगे।
प्राकृतिक उत्पाद का सदुपयोग नही बल्कि दोहन अधिकः
मुझे याद आ रहा है जब मैं बी काम में पढ़ता था उसमें एक विषय था ‘भारत की अर्थव्यवस्था एवं विकास’ उसमें एक वाक्य ;कुटेशनद्ध था कि ‘प्रकृति ने भारत के साथ पक्षपात किया’। उसमें मूल भाव यही था कि पूरे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जिसमें आठों )तुएं है, प्रकृति ने भरपूर ‘प्राकृतिक खनिज भंडार’ दिया है परन्तु दुःख इस बात का है कि हम आजादी के 66 साल बाद भी उसका पूरी तरह से सदुपयोग नहीं कर पाए हैं। हां इतना अवश्य है कि दोहन करने में संभवतः सबसे आगे रहे हैं। अभी हाल ही चुनावी चर्चा में कुछ तथ्य सामने आए है उनको आपके साथ बांटना चाह रहा हूं पहली तो यह है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी ने एक साक्षात्कार मंे कहा कि देश में 20 से अधिक बड़ी कोयले की खदान बंद पड़ी हैं जिसके कारण देश में बिजली का उत्पादन बंद पड़ा है,  दूसरे अभी चुनावों के दौरान ही पता चला कि अमेठी संसदीय क्षेत्र में एक बहुत बड़े भूभाग में फैक्टरी स्थापित की गई जिसमें स्टील उत्पाद का उत्पादन होना था, आश्चर्य यह जानकर हुआ कि उस उत्पादन के लिए ‘कोयले’ का आयात चीन से किया जा रहा था। यदि इस तथ्य में सच्चाई है बहुत ही शर्मनाक स्थिति है आप स्वयं ही मनन करें।
इसके अतिरिक्त मैं यह भी कहना चाहूंगा कि भारत के प्रत्येक राज्य में प्रकृति के द्वारा दिया गया नायाब भेंट है उदाहरार्थ झारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक आदि ऐसे राज्य है। जिसमें झारखंड और बिहार की चर्चा की जाए तो स्वयं में प्राकृतिक खनिज की दृष्टि से अपने आप में समर्थ है। यदि यह राज्य आजादी के बाद से ही इन खनिजों का सही रुप से आर्थिक दृष्टि से मजबूत बनाने में सोच बनाकर नीति का निर्माण करते और लागू करते तो संभवतः यह राज्य आर्थिक दृष्टि से पिछड़े नहीं होते और केन्द्र से विशेष राज्य की मांग नहीं करनी पड़ती। ऐसे ही हमारा काश्मीर की स्थिति भी है, हां मैं हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड का विशेष उल्लेख करना चाहूंगा जिनके द्वारा नदियों का सही उपयोग कर स्वयं को ‘बिजली उत्पाद’ के क्षेत्र में अग्रणी स्थान पर स्थापित किया। बात करें राजस्थान जोकी रेगिस्थान है, जहां गर्मी अत्याधिक होती है वहां पर अब सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिए राज्य सरकार ने प्लांट लगायंे हैं परन्तु उसमें राजनीतिक सोच के साथ नीति निर्माण क्यों?
करों का मकड़जालः आजादी के बाद हमारी तत्कालीन सरकारों ने देश में कर प्रणाली का बोझ जनता पर डाल दिया। मुगल शासन काल से देश में कोई  उद्योग-धंधे नहीं थे कृषकों से लगान की वसूली की जाती थी इसके अतिरिक्त स्थानीय निकाय जनता से जनसुविधा उपलब्ध कराने के लिए करों की वसूली किया करती थी। परन्तु अंग्रेजी शासन ने सर्वप्रथम देश में आय पर ‘कर’ लगाने का निर्णय लिया, उस समय देश में चंद लोग की आयकर के दायरे में आते थे फिर 1922 में आयकर अधिनियम में बदलाव करते हुए दायरा बढ़ाकर 1961 में आयकर अधिनियम में व्यापक बदलाव करते हुए लागू किया परन्तु अब जनता पर विभिन्न करों के नाम पर ‘करों को मकड़जाल’ बिछा दिया गया है यदि हम यह कहें कि मरने वाले को भी मरते समय टैक्स की अदायगी करनी पड़ती है, तो यह कथन गलत नहीं है। 
इस तथ्य पर गौर करना आवश्यक है कि इस समय देश में लोगों के ऊपर लगभग 52 तरह के स्थानीय, राज्य स्तर के एवं राष्ट्र के टैक्स लागू हैं जिनको जनता द्वारा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रुप से भुगतना पड़ रहा है। फिर यदि व्यापार-उद्योग की बात करें तो देश के उद्योग-धंधों पर ;हमारे प्रदेश मेंद्ध लगभग 52 तरह के टैक्सों का भुगतान करना होता है और उधर लगभग 27 प्रकार के विभाग हाबी रहते हैं और प्रत्येक विभाग की कार्यप्रणाली और औपचारिकओं का दवाब इतना अधिक है कि व्यापारी आठ घंटे में व्यापार करें अथवा इन विभाग को औपचारिकताएं पूर्ण करें। अतः अब यह आवश्यक हो गया है कि देश में जीडीपी और औद्योगिक उत्पाद बढ़ाने के लिए नए सिरे से औरा नई सोच के साथ नीतियों का निर्माण करना होगा साथ उद्योग जगत को उत्पाद बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। 
अब यह आवश्यक हो गया है कि सरकार को टैक्स ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा ताकि करदाताओं की संख्या बढ़े और कर की वसूली में बढ़ोतरी हो इसके लिए सोच में और तौर-तरीके में परिवर्तन लाना अतिआवश्यक होगा।                                                                                                  -पराग सिंहल

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